एक सदगृहस्थ लुहार
एक सदगृहस्थ लुहार था। श्रम और कुशलता से परिवार का पालन पोषण करता था। उसके लड़के को अधिक खर्चा करने की आदत थी। पिता ने रोक लगाते हुए कहा अपनी कमाई से पच्चीस रुपये भी कमाकर दिखाओ तो तुम्हे खाना दूंगा अन्यथा नहीं।
लड़के ने प्रयास किया पर असफल रहा। तो उसने अपने जेबखर्च से ही बचाकर पिता को पच्चीस रुपये दे दिए पिता समझ गया उसने वो रुपया लिया ,यह तेरी कमाई नहीं है कहकर भट्टी में डाल दिया।
दुसरे दिन भी उसकी कमाई करने की हिम्मत नहीं पड़ी तो माँ से चुपचाप कहकर पच्चीस रुपये मांग लिए और पिता को दे दिया पिता फिर समझ गए और ये तेरी कमाई नहीं है कहकर उसे भट्टी में डाल दिया
अब पुत्र समझ गया बिना कमाए कुछ नहीं होने वाला तो दिनभर मेहनत करके उसने पच्चीस रुपये कमाए और पिता के हाथो में रखा। पिता ने फिर ये तेरी कमाई नहीं है कहकर भट्टी में डालने के जैसे ही कोशिश की बेटे ने पिता का हाथ पकड़ लिया और कहा ये आप क्या कर रहे है कितनी मेहनत से मैंने ये रूपए कमाए उसे बेदर्दी से भट्टी में मत डालिए ।
पिता मुस्कुराए और कहा बेटा ! अब समझे मेहनत की कमाई का दर्द। जब तुम बेकार के कामो में मेरी कमाई खर्च कर देते थे तो मुझे भी ऐसा ही दर्द होता था।
पुत्र की समझ में बात आ गयी ,उसने दुरूपयोग न करने की कसम खायी और पिता के कामो में सहयोग देने लगा।